खैनी, गुटखा, ज़र्दा, पान मसाला…

पैकेट खोल फट से मुँह में डाला ,
सस्ता सा “नशा” मगर होती है शान,
हाँ ,मैं भी रखता हूँ ऐब में अपना एक नाम ।


धीरे-धीरे उस एक रूपए के पाउच ने,
ऐसा रस घोला मेर मुँह में ,
खाली-खाली सा कुछ लगता है ,
जब पैकेट से मुँह नहीं भरता है ।

एक अलग सी महक एक अलग सा सुकूँ ,
क्या हर्ज़ है इस में जो मैं इसको चबा लूं?
लड़की,दारु का शौक नहीं मुझे ,
सिर्फ तम्बाकू की लत से ही तो दिन बुझे ।


लम्बे-लम्बे से कश जब “सिगरेट ” के जलते हैं ,
कॉलेज की कैंटीन में लड़कियों के दिल मचलते हैं ,
वो रह-रह के धुओं के छल्ले उड़ाना ,
सिगरेट पीने का तरीका अपने जूनियर्स को सिखाना ।


उम्र चौबीस की जैसे ही मेरी आयी,
मैं डॉक्टर के पास पहुंचा लेने दवाई ,
भूख लगना एकदम बंद सा हो गया था,
हर खाने का स्वाद बेस्वाद हो गया था ।


मुँह को खोला जब तो दाँत गल गए थे ,
जुबान पर तम्बाकू के निशान छप गए थे ,
गालों में बच रहा था सिर्फ कुछ चमड़ी का नज़ारा ,
माँ रो रही थी कि बचा लो
ये मेरा “लाल” है प्यारा ।


“कैन्सर ” का नाम जैसे ही डॉक्टर ने सुनाया ,
मेरे पैरों तले की धरती में मानो भूचाल आया ,
अभी तो इतने सपने बाकी थे मेरे ,
कैसे छूट गए वो सपने अधुरे।


क्यूँ इस तम्बाकू को मैंने गले लगाया ?
अपनी ही कश्ती को पानी में डुबाया ,
जीवन जीने की चाह एक ओर तलबगार थी ,
दूसरी ओर मृत्यु मेरे सर पर सवार थी ।


बहुत से सपने टूट गए
बहुत सी उम्मीदें बह गईं ,
परिवार के लिए न कर सका कुछ
उसकी सूनी माँग भी भरने से रह गयी ,
जलाओ जब भी मुझे तुम शमशान में ले जाकर ,
एक तस्वीर खींच लेना
मेरे खुले हुए मुँह की
जनता को दिखाकर ।।